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तलाश - 1

#तलाश (1भाग)

कविता भारी कदमों से वो बस की और बढ़ी, उसे लगा शमित उसे शायद रोक लेगें.., इसलिये स्टेशन तक छोड़ने आये हों..,कुछ तो कहेगें ..,
बस में चढ़ते कविता ने पीछे मुड़ के देखा ..शमित नही थे वहां कहीं , धक रह गई थी ,एक बार भी नही कहा "पहुंच के फोन करना ,जल्दी वापस आना, कुछ भी नही कहा,रुलाई सी आने की बैचेनी में गला भर आया ,कविता चुपचाप बस में बैठ गई,।
जब तक बस निकल नही गई इसी उम्मीद से बस की खिड़की से बाहर देखती रही कि शायद शमित एक बार आ जाय, पर नही,वो निराश सामने की सीट में सर टिका के आंखें बंद कर निराशा से उबरने की कोशिश करने लगी।
बस निकल पड़ी अपने गंतव्य को, इस छोटे से पहाड़ी शहर से उतार चढ़ाव के साथ बस निकल गई आगे.. बिल्कुल कविता की जिन्दगी की तरह।
शमित बहुत शान्त ,मृदुभाषी, अपने काम में व्यस्त रहने वाला इंसान था ,प्यार तो था या नही , पर इज्जत करता था कविता की, कभी कुछ नही कहा ,जो मांगा बिना प्रश्न किये दे दिया,खाना बहुत अच्छा बनाओ या साधारण चुपचाप खा लिया,
कभी नही पूछा 'कविता तुम कैसी हो'?
तुम्हें कुछ चाहिये? तुम खुश हो,दुखी हो?
शमित कमरे में तब आते जब कविता सो चुकी होती या नींद का बहाना किये लेटी होती , कविता का मन रोता , क्या बतायें किसी को भी , बताये तो किसे बताये ,
मां को बताये....पर क्या गुजरेगी,
दीदी को भी कैसे बताये...वो जीजाजी की पीने की आदतों से तंग आकर तीन साल पहले मां के पास लौट आई थी,और आत्म विश्वास के साथ उन्होनें अपने जीवन की नई शुरुआत की और आज स्टेट बैंक में सर्विस कर अपनी जिन्दगी अपने ढंग से जी रही हैं, मां को भी अपने पास ले आई हैं,
भैय्या भाभी को भी नही बता सकती, भाभी नही चाहती थी कि उस परिवार में शादी हो, तब भाभी का विरोध ईर्ष्या के कारण था, पर आज उन्हें हंसने का मौका कैसे दे कविता,

शमित ऑफिस से लौटने के बाद अपनी मां के कमरे में चले जाते , कविता पहले पहल खुद ही चाय ,नाश्ता लेकर मां के कमरे में चली जाती थी, पर कोई उससे नही कहता "कविता बैठो..कविता तुम भी चाय पीओ.., कविता अपमानित सी लौट आती,
अब वह काफी समय से मां की पुरानी सेविका दुर्गा दी को ही चाय देने भेजती है। पर फिर भी कोई शिकायत नही करता कि कविता तुम क्यों नही चाय लाती ...या हमारे साथ बैठ कर चाय क्यों नही पीती..
शमित के नानाजी की इस पहाड़ी शहर में बहुत बड़ी स्टेट थी और यूरोपियन शैली का बना खूबसूरत बंगला , मां उनकी इकलौती बेटी थी तो पापा के रिटायर होने के बाद वह पहाड़ वापस आकर उनके होटल और ट्रैवल एजेन्सी का काम काज देखने लगे और अब ये जिम्मेदारी शमित पर आ गई थी,
शाम को मां और बेटा लॉन में बैठते या अक्सर टहलने निकल जाते , शुरु के दिनों में वो भी चली जाती थी , पर धीरे धीरे उसे अपनी उपेक्षा समझ में आने लगी थी , फिर उसने जाना छोड़ दिया।
.... अभिजात्य से लदी फदी मां अपना सबसे ज्यादा वक्त अपने लाईब्रेरी कम,म्यूजिक रुम से बेडरुम में गुजारती ,उन्हें पढ़ने का और उम्दा संगीत सुनने और गाने का शौक था, कविता सोचती इतनी सुन्दर कोमल सी रुचियों से सम्पन्न महिला अपनी बहू के लिये इतनी रूखी कैसे हो सकती है ,उसे उनकी रुचियां दिखावा लगती, पर वह कभी कभी रसोईघर में आती वो भी बेटे की पसन्द की खास डिश बनाने।
मां की अपनी दुनिया थी , वो सम्पन्नता और अभिजात्य में पली बड़ी थी, जहां जोर से बोलना ,तू तड़ाक करना , जोर से खिलखिलाकर हंसना असभ्यता थी ,
और खुद कविता शादी से पहले अपने निर्झर हंसी के लिये पहचानी जाती थी। पर अब निर्झर हंसी नही , चुपके चुपके उसकी आंखें बहती थी। शुरु शुरु में जब वो हंसती तो मां अजीब नजरों से उसे देखती पर कहती कुछ नही।
दुर्गा दीदी ने उसे समझाया कि मांजी को क्या पसन्द है और क्या नही,शमित भैय्या मां की छाया हैं , वो उनका दिल नही तोड़ सकते , भाभी आप को ही समझना और बदलना पड़ेगा।
#क्रमश:
डा.कुसुम जोशी
गाजियाबाद, उ.प्र.